अब बुढ़ापे की हमको हरारत लगे॥
आँख से धुधला पन यूं दिख रहा॥
कापता तन लिए धूठ को संग में॥
पाँव आने को जाने से अब रुक रहा॥
कान को कम सुनायी अब देने लगा॥
कौन बकता है क्या ये नहीं सुन रहा॥
जीभ को स्वाद लेना अब महागा पड़े॥
साथ दूगा नहीं पेट यूं कह रहा॥
अब तो लगता है हूँ मरने के मोड़ पर॥
संग छूटेगा अब मौन बन कह रहा॥
अच्छी कविता है.. बुढ़ापा तो सबको आना ही है जी. सच तो सच है.
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