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शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

मेरे आँगन से कोयल कब उड़ गयी॥

मैंने ढूध किनारा शहर न मिला॥
जिंदगी ऊब करके नरक बन गयी॥
मौत आके कड़ी थी मेरे सामने॥
लगता जाने की अबतो घडी आ गयी॥
जिसको अपना बनाया बेदर्दी बने॥
ढीठ जीवन की लय से लौ बुझ गयी॥
मन का सच्चा बना कुछ छिपाया नहीं॥
मेरे आँगन से कोयल कब उड़ गयी॥

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