चटका शीशा देख कर ॥
मै भी हो गयी दंग॥
प्रियतम की उस पीर में॥
छोड़ दिया था संग॥
छोड़ दिया था संग॥
बिमारी से जूझ रहे थे॥
चार पायी पर पड़े पड़े॥
तन को भीच रहे थे॥
कभी किया न ऐसा काम॥
मल मूत्र रोज़ बहाऊ॥
बदबू तन से आ रही थी॥
फिर उन्हें नहलाऊ॥
सूझ बूझ की रुकी पहेली॥
चढ़ गयी मुझको भंग॥
रोज़ रोज़ के दात्किर्रा से॥
हमहू होय गयी तंग॥
कूद फंड के नैहर आयी॥
बोली मरो अपंग॥
ड्योढ़ी पर जैसे मै पहुची॥
माता बोले ब्यंग॥
तेरी जीवन की रसरी खुल गयी॥
अब सूझे गा सारा छंद॥
वावली बनी तुम्हारी अक्ल॥
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